जनवरी का जाड़ा, यार ने खोल दिया नाड़ा-1

हरियाणा जितना अपनी इज्जत और आबरू की रक्षा के लिए जाना जाता है उतना ही वहाँ पर होने वाले चोरी छिपे होने वाले सेक्स कांडों के लिए। वहाँ पर लड़की अगर किसी लड़के के साथ खुलकर अपने मन की इच्छा से उसके साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाना चाहे और गलती से वहाँ के समाज को उसकी भनक लग जाए तो लड़का और लड़की दोनों को मौत के घाट उतार दिया जाता है।

मैंने हरियाणा का नाम इसलिए लिया क्योंकि इज्जत का जितना ढिंढ़ोरा वहाँ पर पीटा जाता है चोरी-छिपे उतने ही सेक्स कांड वहाँ पर होते रहते हैं। मुझे पता है कि हर जगह की यही कहानी है लेकिन सवाल यहाँ पर यह पैदा होता है कि अगर पेट की भूख मिटाने के लिए मन-पसंद खाना खाने की आजादी ही न हो तो बेमन से खाए गए खाने में स्वाद कहाँ से आएगा. यही बात शारीरिक सम्बन्धों पर भी लागू होती है। यदि कोई अपनी मर्ज़ी से अपने मन-माने पार्टनर के साथ संभोग का आनन्द लेने के लिए तैयार है तो समाज को उसमें अडंगा डालने की क्या जरूरत है?

कहानी लड़की की है इसलिए नाम बताने के विषय में तो प्रश्न ही नहीं उठता। उस पर भी हरियाणा की पृष्ठभूमि तो मामले को और संगीन बना देती है।
लेकिन आजकल फिल्में और कहानियाँ समाज का आइना बन चुकी हैं इसलिए कहानी तो बतानी पड़ेगी, मगर गुमनामी में। शायद इस कोशिश से आने वाले समय में किसी की जान बच जाए। बात दिल्ली से सटे सोनीपत जिले के एक गांव की है।

उन दिनों मैं बाहरवीं में पढ़ती थी। उम्र नादान थी और दिल बच्चा। लेकिन 18 तो पार कर ही गयी थी। सही गलत की पहचान कहाँ होती है उन दिनों में। स्कूल में देवेन्द्र नाम का एक लड़का पढ़ता था, मैं उसको पसंद करती थी। कहीं कोई कमी नहीं थी उसमें। शरीर का चौड़ा, उम्र में मुझसे एक दो साल बड़ा मगर भरपूर जवान और थोड़ा सा शर्मीला। जब हंसता था तो हल्की दाढ़ी लिए उसके गोरे गाल लाल उठते थे। सुर्ख लाल होंठ और आंखें थोड़ी भूरी मगर काली। मन ही मन उसको चाहने लगी थी।

लेकिन लड़की थी तो मन की इच्छाओं को अंदर ही दबाकर रखती थी, चाहती थी कि शुरूआत वो करे तो ठीक रहेगा। सालभर उसकी तरफ से पहल की आस में ऐसे ही निकाल दिया मैंने। चोरी छिपे उसे देखती तो थी लेकिन जब सामने आता तो नज़र नहीं मिला पाती थी। गलती से एक दो बार उसने मेरी चोरी पकड़ भी ली थी मगर बात हल्की सी मुस्कान से आगे कभी बढ़ ही नहीं पाई।

बाहरवीं के फाइनल एग्ज़ाम जब खत्म हुए तो उसके साथ उसको पाने की उम्मीद भी मैंने छोड़ दी। स्कूल के बाद अब कॉलेज ढूढने की तैयारी में थी। आज के समय में लड़की का पढ़ा-लिखा होना बहुत जरूरी है यह बात मैं भी जानती थी और मेरे घर वाले भी। रिजल्ट आने के बाद मैंने बी.ए. का फॉर्म भर दिया। सोनीपत शहर के एक नामी कॉलेज में मुझे एडमिशन मिल गया। महीने भर बाद कॉलेज की फीस भरते ही क्लास भी शुरू हो गई। मेरे पिता जी मुझ कॉलेज छोड़ने जाते और छुट्टी के वक्त लेने आते थे।

शायद अक्टूबर का महीना था और सुबह शाम हल्की-हल्की ठंड पड़ना शुरू हो चुकी थी। स्टॉल के नीचे किताबें और किताबों के नीचे दबते-दबते मेरे स्तन कब बड़े हो गए इसका अहसास मुझे तब हुआ जब मैंने नहाते हुए बाथरूम के शीशे में उनको गौर से देखा। चूत अभी नई नवेली थी जैसे किसी आड़ू (फल) के बीच हल्की सी दरार हो। लेकिन उस पर उगने वाले रोम अब बाल बनने लगे थे। जो नहाने के बाद गीले होकर जैसे शरमा जाते थे।

कॉलेज जाते हुए तीन महीने हो चुके थे। मेरी 2-3 करीबी सहेलियाँ भी बन गई थीं लेकिन अभी इतनी करीबी नहीं थी कि उनसे लड़कों के बारे में बातें की जा सकें। पीरीयड्स और चूत की देख-रेख को लेकर तो बहुत बातें होती थीं लेकिन चूत चुदवाने के बारे में कभी किसी से खुलकर बात नहीं हुई थी।

एक दिन पापा की तबीयत खराब हो गई तो मुझे कॉलेज से छुट्टी करनी पड़ी क्योंकि कोई और चारा नहीं था। घर वाले मुझे अकेले घर से बाहर नहीं भेजना चाहते थे। अकेली बेटी थी तो चिंता ज्यादा थी। अगले दिन भी तबीयत में कोई सुधार नहीं हुआ, बल्कि उल्टियाँ भी शुरू हो गईं और चलते हुए उनको चक्कर आने लगे।
तीसरे दिन रक्त जाँच में पता चला कि उनको डेंगू बुखार हो गया है। ब्लड प्लेटलेट्स भी काफी घट चुकी थी इसलिए फौरन उनको अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। तब पता चला कि सरकारी अस्पतालों के बाहर लगे स्वास्थ्य सम्बन्धी बोर्ड और जानकारी हमारी जिंदगी में कितनी अहमियत रखते हैं। लेकिन हम उनको फालतू समझते हैं और उन पर लिखी सावधानियों को नज़रअंदाज़ करके निकल लेते हैं।

पापा के साथ हफ्ते भर तो माँ अस्पताल में रही और मैं घर का काम संभालती। रिश्तेदारों का आना-जाना भी लगा रहता था। जब प्लेटलेट्स बढ़ने लगे और डॉक्टर ने बताया कि अब पापा खतरे से बाहर हैं तो उनको अस्पताल से छुट्टी मिल गई लेकिन अभी भी सावधानी बरतने और इलाज जारी रखने की उतनी ही ज़रूरत थी।

10 दिन बीत गए तो उनकी तबीयत अब सुधरने लगी थी लेकिन बाहर घूमना-फिरना अभी बंद था। माँ ने सोचा कि ऐसे तो मेरी पढ़ाई का बहुत नुकसान हो जाएगा। माँ बोली- तेरी कोई सहेली नहीं है क्या जिसके साथ तू कॉलेज जा सके?
मैंने कहा- लेकिन मां … अभी पापा …
माँ ने मेरी बात काटते हुए कहा- तू पापा की चिंता मत कर, पढ़ाई पर ध्यान दे। ऐसे कब तक घर बैठी रहेगी इनके भरोसे? ऐसे तो तेरी पढ़ाई का बहुत नुकसान हो जाएगा। किसी सहेली के साथ चली जाया कर जब तक तेरे पापा ठीक नहीं हो जाते।

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घर वाले बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी कुर्बानी देते चले जाते हैं लेकिन बच्चे इस बात को तब समझ पाते हैं या तो जब वो खुद माँ-बाप बन चुके होते हैं या वक्त की हवाओं के थपेड़े उनको लग चुके होते हैं मगर तब तक काफी देर हो जाती है. फिर न बीता हुआ वक्त लौट कर आता है और न माँ-बाप।

सहेलियों में निशा (बदला हुआ नाम) मेरी सबसे करीबी थी। मैंने उसको घर बुलाया तो माँ ने उसको सारी समस्या बता दी।
वो बोली- आप चिंता मत करो आंटी, मैं अपने भाई से कह दूंगी कि वो गाड़ी आपके यहाँ से होते हुए ले आया करे!

अगले दिन से ही निशा अपने भाई के साथ मुझे गाड़ी में ले जाने लगी। सुबह तो निशा पहले से ही गाड़ी में बैठी होती थी लेकिन छुट्टी के वक्त उनका घर रास्ते में पहले आ जाता था और बाद में उसका भाई मुझे मेरे घर छोड़कर वापस चला जाता था।

हमें 3 दिन हो चुके थे, चौथे दिन जब छुट्टी के बाद निशा अपने घर के सामने उतर गई तो उसके भाई ने गाड़ी घुमाई और हम हमारे घर की तरफ चल पड़े। शहर से निकले और 15 मिनट बाद मेरा गांव भी आ गया। मैं बैग संभालते हुए गाड़ी से उतरने के लिए पिछला दरवाजा खोलने ही वाली थी कि तभी पीछे से एक बाइक आकर ड्राइवर वाले शीशे के पास आ रुकी। एक लड़के ने गाड़ी के शीशे पर नॉक किया तो निशा के भाई ने शीशा नीचे कर दिया। बाइक पर बैठे लड़के ने हेल्मेट पहन रखा था। शीशा उतारने के बाद जब उसने हेल्मेट उतारा तो मैं उसे देखती रह गई।

ये तो देवेन्द्र है … जो स्कूल में मेरे साथ पढ़ता था। ये यहाँ क्या कर रहा है … और निशा के भाई को कैसे जानता है … मेरे मन में सवाल उठना शुरू हो गए।
वो दोनों आपस में बातें करने लगे.

निशा के भाई का नाम मुकेश था, मुकेश ने पूछा- कहाँ जा रहा है? देवेन्द्र ने कहा- सुसराड़ जाऊं हूं … चालैगा तू भी … ?”
उसका जवाब सुनकर मुकेश ठहाका मारकर हंस पड़ा, और साथ ही देवेन्द्र भी।

मैं भी पीछे बैठी हुई मुस्कुरा दी। वैसे उसे देखकर मन में खुशी की एक लहर तो उठी लेकिन खुशी के समंदर में शर्म का भंवर भी साथ-साथ बन गया जिसमें मेरी वासना की कश्ती को डूबने देना ही मैंने बेहतर समझा। मैंने नज़रें झुका लीं। मैं नीचे देखने लगी कहीं ये पहचान न ले।

उसने ड्राइवर साइड के खुले शीशे वाली खिड़की पर कुहनी रखते हुए मुकेश के कान में चुपके से कुछ फुसफुसाया। जिसके जवाब में मुकेश ने आंखों में कुछ इशारा किया। जिसको न मैं देख पाई और न समझ पाई। फिर उसने आवाज़ ऊंची करते हुए निशा के भाई से बस इतना ही कहा कि तू जल्दी वापस आ … मुझे तुझसे कुछ ज़रूरी बात करनी है।

6-7 महीने बाद देवेन्द्र को देख रही थी। शक्ल में कुछ खास परिवर्तन नहीं आया था लेकिन शरीर में मर्दानगी साफ झलक रही थी। कंधे पहले से कुछ ज्यादा चौड़े लगे, दाढ़ी-मूछ अधिक काली और घनी, लंबे रेशमी बाल जो गर्दन तक पहुंच रहे थे, लेकिन होठों का रंग थोड़ा गाढ़ा गुलाबी हो गया था। चेहरा वैसे ही गोरा और चमकीला मगर जवानी की एक दो फुंसी भी निकल आई थी जो उसके आकर्षण को फिर भी कम नहीं कर पा रही थी।

मुकेश से बात करके उसने बाइक की रेस बढ़ाई और सड़क पर गाड़ी के आगे दौड़ा दी। मैं उसको देखती रह गई और वो कुछ ही पल में आंखों से ओझल हो गया।

उस दिन घर आकर मैंने किताबें रखीं और आराम करने लगी। देवेन्द्र के बारे में सोचने ही लगी थी कि ना चाहते हुए भी मेरा हाथ मेरे वक्षों पर चला गया और मैं उनको सूट के ऊपर से ही सहलाने-दबाने लगी। देवेन्द्र की मजबूत जवानी मुझे अंदर से कमज़ोर बना रही थी। मैं उसको भूल चुकी थी लेकिन आज वो फिर से सामने आ गया और स्कूल का गुज़रा हुआ वक्त आंखों के सामने फिर जीवंत हो उठा।

वक्षों को सहलाते-सहलाते वो तनकर कड़े हो गए और मैंने बिस्तर पर पड़े तकिया को बाहों में भर कर आंखें बंद कर लीं। बहुत बेचैनी हो रही थी, मैं बेड पर पड़ी हुई कसमसा रही थी। बांहों में तकिया और खयालों में देवेन्द्र। मन तो कर रहा था कि मुकेश से बात करूं कि वो देवेन्द्र को कैसे जानता है लेकिन फिर सोचा कि बात शुरू हुई तो वो आगे भी बढ़ेगी, और अब मैं कॉलेज जाने वाली लड़की हूँ सोचा कि अपनी हद में रहूंगी तो बेहतर है। और साथ ही पापा की तबीयत भी ठीक नहीं है, मुझे अभी इन सब बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए।

मैंने मन के घोडो़ं की लगाम वहीं पर खींच दी और ध्यान को भविष्य पर लगाकर फिर से खुद को अतीत से अलग कर लिया। उस दिन के बाद देवेन्द्र कभी दोबारा सामने नहीं आया। हफ्ते भर बाद पापा की तबीयत बिल्कुल ठीक हो गई और मैंने निशा से कहा कि अब तुम्हें परेशान होने की कोई ज़रूरत नहीं है। अब मैं पापा के साथ ही कॉलेज आ जाया करूंगी।

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निशा ने कहा- पागल, इसमें परेशान होने की क्या बात है। तेरे साथ मेरा भी टाइम पास हो जाता है। क्यों बेवजह अंकल को परेशान कर रही है? अभी कुछ दिन उनको और आराम करने दे। वैसे भी सर्दियाँ शुरू हो गई हैं और तू उन्हें स्कूटी पर लेकर आएगी? फिर से बीमार पड़ जाएंगे।
मैंने सोचा कि बात तो ये भी सही कह रही है। और घरवालों को भी निशा के साथ जाने में कोई परेशानी नहीं है। सर्दियों तक दोनों साथ ही चली जाया करेंगी।

दिसंबर का महीना शुरू हो गया था और ठंड अब दिन में भी लगने लगी थी। सुबह शाम तो कोहरा ही छाया रहता था। ये हाल तो शहर का था, गांव के खुले एरिया में तो हालात और भी बुरे थे। पहले सेमेस्टर के एग्ज़ाम शुरू होने वाले थे और आजकल किताबों के साथ वक्त ज्यादा बीतने लगा था।

लेकिन एक और बात जो मैं आजकल नोटिस कर रही थी कि वो ये कि निशा का भाई अब मुझे गाड़ी के सामने वाले शीशे में से देखता रहता था। कई बार ऐसा हो चुका था कि जब मैं नज़रें उठातीं तो वो मुझे देखता हुआ मिलता था। लेकिन मैंने इस बारे में निशा को कुछ नहीं कहा। क्योंकि मैं पहले से ही उसके अहसान के तले दबी हुई थी।

दिसंबर के अंत में एग्ज़ाम शुरू हो गए, अब तो गाड़ी में नज़र उठाने का वक्त भी नहीं मिलता था। घर-कॉलेज और गाड़ी जहाँ वक्त मिलता किताबें खोल लेती। दिमाग की दही हो जाती थी लेकिन एग्ज़ाम तो क्लियर करना ही था किसी भी तरह। मेरी कोशिश मेरिट में आने की थी इसलिए पूरा ज़ोर लगा रही थी। लेकिन निशा और मेरी बाकी सहेलियाँ मुझ पर हंसती रहती थी।

6-7 दिन में एग्ज़ाम खत्म हो गए। लेकिन दिमाग इतना थक गया कि अब कॉलेज की तरफ मुंह उठाने को मन नहीं करता था। वैसे एग्ज़ाम के बाद कॉलेज की छुट्टियां होने वाली थी। कॉलेज के आखिरी दिन सबने क्लास में खूब मस्ती की। जब शाम को छुट्टी हुई तो कॉलेज के गेट के बाहर निकलकर मैं और निशा उसके भाई मुकेश का इंतज़ार करने लगीं। तभी मेरी नज़र एक पान की दुकान के पास खड़े लड़के पर गई। देवेन्द्र था और वहाँ खड़ा होकर सिगरेट पी रहा था। मैं हैरान थी कि ये सिगरेट भी पीता है?

लड़कियाँ उसके पास से गुजर रही थीं और उसको देखती हुई जाती थी। वो भी उनको देखता और फिर मेरी और निशा की तरफ भी।
निशा ने देखा कि मैं भी देवेन्द्र को चोर नज़रों से देख रही हूं तो उसने मुझे कंधा मारकर पूछा- कौन है ये?
मैंने निशा को अन्जान बनते हुए जवाब दिया- मुझे क्या पता कौन है!

इतने में निशा के भाई की गाड़ी हमारे सामने आकर रुक गई। हम दोनों गाड़ी में बैठे और गाड़ी चल पड़ी। मैंने बहाने से पीछे मुड़कर देखा तो वो जा चुका था। मैं समझ गई कि मुकेश ने उसे बता दिया है कि मैं यहाँ पढ़ने आती हूं। लेकिन जिस तरह से वो बाकी लड़कियों को ताड़ रहा था, मैंने कभी स्कूल में उसको ऐसी करते हुए नहीं देखा था।

निशा अपने घर उतर गई और मुकेश मुझे छोड़ने मेरे गांव की तरफ बढ़ चला। बीच रास्ते में उसने अचानक गाड़ी रोक ली। खेतों का एरिया था।
मैंने कुछ नहीं पूछा बल्कि वो खुद ही बोला- मैं 2 मिनट में आता हूँ।

मैं समझ गई कि लघुशंका के लिए गया होगा, मैं गाड़ी में बैठी हुई इंतज़ार करने लगी। वो पास के खेत में नीचे उतर गया। मुझे केवल उसका धड़ दिखाई दे रहा था। उसके दोनों हाथ आगे की तरफ थे जिनमें शायद वो अपने लिंग को पकड़ कर पेशाब कर रहा था।
मैंने नज़र वापस घुमा ली और सामने सड़क पर आते जाते इक्का दुक्का वाहनों को देखने लगी।

जब उसे गए हुए 3-4 मिनट हो गए तो मैंने फिर से देखा। वो सड़क के किनारे खड़ा होकर फोन पर किसी से बातें कर रहा था। मैंने नज़र दूसरी तरफ घुमा ली। दोबारा देखा तो वो मेरी तरफ ही देख रहा था। उसने ब्लैक रंग की जींस और सफेद शर्ट डाली हुई थी। वो अपनी जींस की जिप के पास बार-बार लिंग को खुजलाने के बहाने सहला देता था जैसे मुझे दिखाना चाह रहा हो कि उसका लिंग कैसा है … लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से।
वैसे भी लड़कों के चेहरे को देखकर ही पता चल जाता है कि उनके मन में क्या चल रहा है। देखने में वो ठीक-ठाक था लेकिन मैंने सेक्स की नज़र से कभी उसको नहीं देखा था। दिन की रोशनी में उसकी जींस में उसका लिंग मुझे भी अलग से दिखाई देने लगा था और शायद वो उसी का साइज़ दिखाने की कोशिश भी कर रहा था.

कहानी के दो भाग और हैं.
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कहानी का अगला भाग: जनवरी का जाड़ा, यार ने खोल दिया नाड़ा-2

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